आनंद और उत्सव के मौके पर अपराध

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अभियोग की प्राथमिक जानकारी:

न्यायालय: सर्वोच्च न्यायालय भारत

अभियोग का नाम: कश्मीरा सिंह बनाम स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश

निर्णय दी. 4 मार्च 1952

समकक्ष उद्धरण: 1952 AIR 159, 1952 SCR 526, AIR 1952 SUPREME COURT 159

न्यायाधीश: वीवियन बोस, सैयद फजल अली, बी. के. मुखर्जी

अभियोग क्र.: आपराधिक निवेदन याचिका क्र. 53/1951 (क्रिमिनल अपील)

मूल अभियोग जिसके निर्णय के विरुद्ध याचिका दाखल की गई: उच्च न्यायालय के नागपूर न्यायाधिकरण (जुडीकेचर) की आपराधिक निवेदन याचिका क्र. 297/1950 का दी. 8 जून 1951 का निर्णय। यह याचिका अतिरिक्त सत्र न्यायालय, भंडारा के सेशन्स ट्रायल 25/1950 मे दिए गए निर्णय एवं आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय मे दाखिल की गई थी।

अपराध का विवरण:

कश्मीरा सिंह ने 5 साल के रमेश की हत्या कर दी थी इसीलिए उसे मृत्युदंड की सजा सुनाई गई। उसके साथ उसका भाई गुरुदयाल सिंह, उसका 11 साल का भतीजा प्रीतपाल सिंह और गुरुबचन सिंह के विरुद्ध भी आपराधिक अभियोग चला। गुरुदयाल और प्रीतपाल को रिहा किया गया। गुरुबचन सिंह ने अपना अपराध स्वीकार किया और उसे भी मृत्युदंड की सजा दी गई। कश्मीरा ने अपने दंड को कम करने के लिए ये निवेदन याचिका दाखिल की थी।

यह पूरा मामला बदले की भावना से शुरू हुआ था। पाच साल का रमेश एल. पी. तिवारी का बेटा था। तिवारी गोंदिया के सहायक खाद्य उपार्जन निरीक्षक थे। कश्मीरा और हरबिलास चावल की पॉलीशिंग करके आपूर्ति (सप्लाइ) करते थे और उस समय पोलीष्ड चावल पर कानूनी तौर पर रोक थी। ये बात तिवारी को पता चली। यह बात तिवारी ने भंडारा के उप आयुक्त (डेप्यूटी कमीशनर) के समक्ष प्रस्तुत कर दी। यही तिवारी का काम था। इसीलिए उप आयुक्त ने कश्मीरा को सेवा से निलंबित (सस्पेन्ड) कर दिया था। इसीलिए कश्मीरा सिंह तिवारी से बदला लेना चाहता था।

26 दिसंबर 1950 के दिन सबेरे से गोंदिया के गुरुद्वारे मे सिख धर्म के अनुसार उत्सव चल रहा था। रमेश भी गुरुद्वारे गया हुआ था। क्या जमाना था एक हिन्दू लड़का गुरुद्वारे मे सिख धर्म का उत्सव मनाने बेखौफ जाता था, क्यू की उस समय सबको पता था की हिन्दू और सिख दोनों भाई भाई हैं। रमेश प्रीतपाल के साथ खेलते खेलते गुरुदयाल के घर चला गया, और वही पर कश्मीरा और गुरुबचन ने भोले रमेश की दिन दहाड़े हत्या कर दी। दोनों ने न दिन देखा न आनंद का उत्सव देखा, बस बदले की भावना मे एक बालक की जान ले ली। वो आजकल के बुद्धिजीवी कहते हैं न की अपराधी का कोई धर्म नहीं होता, वैसे ही इस घटना पर से इतना ही कहूँगी अपराधी कभी दिन या समय नहीं देखते वो बस आनंद और उत्सव के मौके पर भी अपराध को अंजाम देते हैं, और ऐसी ही घटनाओं का सहारा लेकर सिनेमा वाले या धारावाइक (सीरीअल) वाले सिख या हिन्दू धर्म के त्योहारों को मनहूस बताने वाली कहानियाँ लिख देते हैं। फिर शाम को रमेश के मृतदेह को गद्दे मे लपेटकर दोनों दरिंदे गुरुद्वारा के चौकीदार के झोपड़ी मे लेकर गए। आधीरात को रमेश का मृतदेह गद्दे समेत कुए मे फेक दिया। इस मामले मे गुरुबचन जिसने कश्मीरा को इस घटना को अंजाम देने मे सहायता की थी, उसने सारी घटना की स्वीकारोक्ति (कन्फेशन) दी थी और यही इस पूरे प्रकरण मे निर्णायक कडी थी।

पाच साल के मासूम की हत्या के लिए कभी भारत की न्यायव्यवस्था मृत्युदंड की सजा देती थी। और आज ये कहा जाता हैं की हर अपराधी का भविष्य होता हैं। बदले की भावना मे ऐसे अपराध करने वालों को मृत्युदंड ही देना चाहिए।

न्यायालय के समक्ष प्रश्न:

क्या एक आरोपी की स्वीकारोक्ति उसके सह-आरोपी के विरुद्ध एक सबूत के तौर पर उपयोग मे ला सकते हैं?

इंडियन एविडन्स ऐक्ट, 1872 (आयईए) की धारा 3 मे दी गई सबूत की परिभाषा के अनुसार अपराधी की स्वीकारोक्ति कोई सबूत नहीं हैं। क्यू की स्वीकारोक्ति को शपथ पर नहीं दिया जाता, न ही इसे सह-आरोपी के उपस्थिति मे दिया जाता हैं, न ही इस पर कोई प्रतिपृच्छा (क्रॉस इग्ज़ैमीनैशन) कर इसकी प्रमाणिकता की कसौटी की जाती हैं। स्वीकारोक्ति को केवल अन्य सबूतों के सहारे ही उपयोग मे ला सकते हैं।

इस पूरे घटना क्रम मे जीतने भी गवाह और सबूत पेश किए गए वे अपने आप मे अलग अलग कहानी बता रहे थे, इसीलिए गुरुबचन सिंह की स्वीकारोक्ति को सर्वोच्च न्यायालय ने एक पुख्ता गवाही के तौर पर स्वीकृति नहीं दी।

न्यायालय का निर्णय:

भले ही ये बात सत्य हैं की कश्मीरा तिवारी से बदला लेना चाहता था, पर तमाम गवाह और सबूत मिलकर भी कश्मीरा का अपराध सिध्द नहीं कर पाए थे। इसीलिए न्यायालय ने अंत मे कश्मीरा का मृत्युदंड माफ कर दिया पर इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) की धारा 201: अपराध के साक्ष्य को गायब करना, या अपराधी को छिपाने के लिए झूठी सूचना देना के तहत सात साल की सजा सुनाई।

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